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Class 12 history chapter 7 | राजस्थान का स्वाधीनता संग्राम एवं एकीकरण

Class 12 history chapter 7 | राजस्थान का स्वाधीनता संग्राम एवं एकीकरण

जनजाति आंदोलन एवं समाज सुधार

राजस्थान में दक्षिणी क्षेत्र में भील निवास करते हैं, जो मुख्यतः डूंगरपुर, मेवाड़, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ व कुशलगढ़ के इलाके हैं। भील अत्यन्त परम्परावादी जाति है जो अपने सामाजिक व आर्थिक स्तर को लेकर सजग रहती है। जब इनके परंपरागत अधिकारों का हनन हुआ, तो इन्होंने अपना विरोध प्रकट किया, चाहे वह फिर अंग्रेजों के विरूद्ध हो या फिर शासक के विरूद्ध हो। 

भील, उनकी प्रकृति और चरित्र

भील भारत की प्राचीनतम जातियों में से एक मानी जाती है। 
भीलों की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न प्रकार की किंवदन्तियाँ 
प्रचलित है। बाणभट्ट कृत कादम्बरी के अनुसार ‘भील’ शब्द का 
उपयोग प्राचीन संस्कृत और अपभ्रंश-साहित्य में भी मिलता है। 
कथासरित्सागर में ‘भील’ शब्द का उपयोग संभवतः सर्वप्रथम 
माना जाता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार ‘भील’ शब्द की उत्पत्ति ‘भिल्ला’’ शब्द से हुई है। कर्नल टाड इन्हें वन पुत्र अथवा ‘जंगली शिशु’ के नाम से पुकारता है। एक अन्य किवदंति के 
अनुसार भील महादेव से उत्पन्न हुए हैं। कुछ भी हो, राजस्थान 
में भीलों का विशेष योगदान रहा है। महाराणा प्रताप की सेना में अधिकांश भील थे और उन्होंने मुगल आक्रमण से रक्षा करने में 
महत्वपूर्ण योगदान दिया।
वास्तव में यह एक बहुत ही सरल व निष्छल जाति है और आर्थिक दृष्टि से बहुत ही पिछड़ा वर्ग रहा है, परन्तु इस सब 
के बावजूद भील एक साहसी और वफादार जाति है। इनके मुख्य हथियार तीर कमान हैं। वे अपने रीति-रिवाज और परम्पराओं के प्रति बहुत अधिक सजग हैं और उसका उल्लंघन करना उन्हें रुचिपूर्ण नहीं लगता। यही कारण है कि जब किसी कानून के द्वारा उनके रीति-रिवाज और परम्पराओं का उल्लंघन हुआ है तो उन्होंने सदैव प्रतिकार करने का प्रयत्न किया है। उदाहरणतः 18वीं शताब्दी में उन्होंने मराठों के विरूद्ध संघर्ष किया तो 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध विद्रोह किया। यह अन्य बात है कि कर्नल टाॅड की सफल कूटनीति के परिणामस्वरूप 12 मई, 1825 को भीलों और ब्रिटिश सरकार के मध्य एक समझौता हो गया, जिसके अनुसार भीलों की ओर से यह आश्वासन दिया गया कि वे चोर, डाकू अथवा ब्रिटिश सरकार के शत्रुओं को कभी शरण नहीं देंगे तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी के आदेशों का पालन करेंगे। 
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गोविंद गुरु व भगत आंदोलन

गोविन्द गुरू एक महान समाज सुधारक थे। जिन्होंने भीलों के सामाजिक व नैतिक उत्थान का बीड़ा उठाया। उन्हें सामाजिक दृष्टि से संगठित करके उन्हें मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया। इस लक्ष्य के लिये उन्होंने ‘सम्प सभा’ की स्थापना की व उन्हें हिन्दू धर्म के दायरे में बनाये रखने के लिये भगत पंथ की स्थापना की। सम्प सभा के माध्यम से मेवाड़, डूंगरपुर, ईडर, गुजरात, विजयनगर और मालवा के भीलों में सामाजिक जागृति से शासन सशंकित हो उठा और भीलों को ‘भगत पंथ’ छोड़ने के लि विवश किया जाने लगा। 
मोतीलाल तेजावत व गोविंद गुरु




जब उन्हें बेगार व कृषि कार्य के लिए बाध्य किया गया और जंगल में उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित किया गया, तो वे आंदोलन के लिए विवश हो गए। गोविन्द गुरू के प्रयासों से शिक्षा का प्रचार होने के साथ-साथ सुधार भी होने लगा। 
उदाहरण के लिये जब भीलों में मद्यपान का प्रचलन कम होने 
लगा, तो कुशलगढ़ व बांसवाड़ा राज्य को आबकारी क्षेत्र में भारी नुकसान उठाना पड़ा। अंग्रेजों ने इस सुधार व संगठन के पीछे ‘भील राज्य’ की स्थापना की संभावना व्यक्त की। अप्रैल 1913 ई. में डूँगरपुर राज्य द्वारा पहले गिरफ्तार और फिर रिहा किए जाने के बाद गोविन्द गुरू अपने साथियों के साथ ईडर राज्य में मानगढ़ की पहाड़ी पर चले गये (जो बांसवाड़ा व सथ राज्य की सीमा पर स्थित है।) अक्टूबर 1913 ई. को उन्होंने अपने संदेश द्वारा भीलों को मानगढ़ की पहाड़ी पर एकत्र होने के लिए कहा। भील भारी संख्या में हथियार लेकर एकत्र हो गये। उनके द्वारा बाँसवाड़ा राज्य के दो सिपाहियों को पीटा गया। सूथ, किले पर हमला किया गया। इस कार्यवाही ने सूथ, बांसवाड़ा, ईडर व डूंगरपुर राज्यों को चैकन्ना कर दिया। ए.जी.जी. की स्वीकृति मिलते ही 6 से 10 नवम्बर 1913 ई. के बीच मेवाड़ भील कोर की दो कम्पनियां, 104 वेलेजली राइफल्स की एक कम्पनी, राजपूत रेजीमेन्ट की एक कम्पनी व जाट रेजीमेन्ट की एक कम्पनी मानगढ़ की पहाड़ी पर पहुँच गई और गोलीबारी करके भीलों को मार दिया। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस कार्यवाही में 1500 भील मारे गए। इस नरसंहार को कई इतिहासकारो को जलियाॅवाला बाग हत्याकाण्ड से भी अधिक विभत्सकारी बताया है।
 इस प्रकार भगत आंदोलन निमर्मता पूर्वक कुचल दिया 
गया। गोविन्दगुरू को 10 वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई। यह तो स्पष्ट है कि भीलों की कोई महती राजनीति महत्वाकांक्षा 
नहीं थी, किन्तु उनमें व्याप्त सामाजिक एकता भी अंग्रेजों व 
शासकों के लिये चुनौती बन गई। गोविन्द गुरू अहिंसा के पक्षधर थे व उनकी श्वेत ध्वजा शांति का प्रतीक थी। इस आन्दोलन के परिणाम दूरगामी सिद्ध हुए। भीलों के साथ-साथ समाज के दूसरे वर्गों में राजनीतिक चेतना उत्पन्न हुई। 

मोतीलाल तेजावत व एक्की आंदोलन

अंग्रेजों द्वारा भगत आंदोलन कुचल दिए जाने के बाद भीलों का आंदोलन कुछ समय के लिये निष्क्रिय हो गया। फिर भी भगत आंदोलन का प्रभाव भीलों की राजनीतिक चेतना पर पड़ा। भीलों के विरूद्ध सरकारी नीति जारी रही। 1917 ई. में भीलों व गरासियों ने मिलकर महाराणा को पत्र लिखकर दमनकारी नीति व बेगार के प्रति अपना विरोध जताया। कोई परिणाम न निकलता देखकर 1921 में बिजौलिया किसान आंदोलन से प्रभावित होकर भीलों ने पुनः महाराणा को अत्यधिक लागतों व कामदारों के शोषणात्मक व्यवहार के विरूद्ध शिकायत दर्ज की। इन सभी अहिंसात्मक प्रयासों का जब कोई परिणाम नहीं निकला तो भोमट के खालसा क्षेत्रों के भीलों ने लागतें व बेगार चुकाने से इंकार कर दिया। 
Nimda hatyakand rajasthan
नीमड़ा हत्याकांड


1921 ई. में भीलों को मोतीलाल तेजावत का नेतृत्व प्राप्त हुआ। तेजावत ने भीलों को लगान व बेगार न देने के लिये प्रेरित किया। एक्की आन्दोलन के नाम से विख्यात इस आंदोलन को 
जनजातियों के राजनीतिक जागरण का प्रतीक माना जा सकता है। डूंगरपुर के महारावल ने आंदोलन फैल जाने के भय से सभी 
प्रकार की बेगारें अपने राज्य से समाप्त कर दी। जागीरी क्षेत्रों में 
भीलों को यह सुविधा न मिल पाने के कारण एक्की आंदोलन 
संगठित रूप से तेजावत के नेतृत्व में भोमट क्षेत्र के अतिरिक्त 
सिरोही व गुजरात क्षेत्र में भी फैल गया। अग्रेंजी सरकार ने अब 
दमनात्मक नीति अपनाई। 7 अप्रैल 1922 ई. को ईडर क्षेत्र में माल नामक स्थान पर मेजर सटन के अधीन मेवाड़ भील कोर ने गोलीबारी की। 3 जून 1929 ई. को ईडर राज्य ने तेजावत को 
गिरफ्तार कर मेवाड़ सरकार को सौंप दिया। मेवाड़ के सर्वोच्च 
न्यायालय महाइन्द्राज सभा ने लिखित में तेजावत से राज्य के 
विरूद्ध कार्य न करने का आश्वासन मांगा। गाँधीजी के निकट
सहयोगी श्री मणिलाल कोठारी के हस्तक्षेप से एक समझौता 
हुआ। 16 अप्रैल 1963 ई. को तेजावत ने लिखित में इच्छित 
आश्वासन दिया और 23 अप्रैल को वह रिहा कर दिए गए। 

मीणा आंदोलन

1924 ई. में अंग्रेजी सरकार ने मीणाओं को ज्यराम पेशा कोम’ (जन्मजात अपराधी जाति) घोषित कर दिया। 
मीणा स्त्री-पुरूषों को प्रतिदिन पुलिस थाने पर जाकर हाजरी 
देनी पड़ती थी। आय के साधनों के अभाव में आर्थिक स्थिति 
खराब थी। छोटूलाल, महादेव, जवाहर राम आदि ने ‘मीणा जाति सभा’ की स्थापना की तथा इस अपमानजनक कानून का विरोध किया गया। शिक्षा के लिए प्रचार-प्रसार किया। सामाजिक 
बुराइयों के विरूद्ध आवाज उठायी। ‘मीणा सुधार समिति’ गठित की गई। श्रीमाधोपुर में आन्दोलन हुआ। ठक्कर बापा के प्रयासों से जयपुर राज्य ने इस कानून को समाप्त कर दिया। 
इसके परिणाम स्वरूप थानों में अनिवार्य उपस्थिति की बाध्यताओं को समाप्त किया गया किन्तु जरायम पेशा अधिनियम पूर्ववत् बना रहा। 28 अक्टूबर 1946 ई. को बागावास में हुए विशाल सम्मेलन में 26000 मीणाओं ने भाग लिया। इसमें चैकीदार मीणाओं ने स्वेच्छा से अपने कार्य से इस्तीफा दिया, और इस दिन को मुक्ति दिवस के रूप में मनाया। जरायम पेशा अधिनियम 1952 ई. में ही रद्द हो पाया।

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