महाराणा कुम्भा(maharana kumbha)
महाराणा कुंभा की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए
नमस्कार दोस्तों मैं हूं अशोक कुमार और आज हम अध्ययन करेंगे राजस्थान के इतिहास के एक गौरवशाली चरित्र महाराणा कुंभा के बारे में जो आज जीवन अजय रहे आओ मेवाड़ के राज्य को दुश्मनों के चंगुल से बचाए रखा तथा मेवाड़ को चहुमुखी विकास के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया इन्हें मेवाड़ में स्थापत्य कला और ललित कला का जनक भी कहा जाता है कुंभा समय अच्छे संगीतज्ञ और साहित्य मर्मज्ञ थे।
महाराणा कुंभा 1433 से 1468 ई.
कुम्भा 1433 ई. में मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठा। उसके पिता का नाम महाराणा मोकल तथा माता का नाम सौभाग्य देवी था। शासक बनने के बाद उसने अपने यशस्वी पराक्रम द्वारा न केवल आंतरिक और बाह्य कठिनाइयों का सफलतापूर्वक सामना किया अपितु अपनी युद्धकालीन और सांस्कृतिक उपलब्धियों द्वारा मेवाड़ के गौरव को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया।
महाराणा कुंभा की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए
शासक बनने के समय कुम्भा के सामने अनेक आन्तरिक और बाह्य सम थी। मेवाड़ के महाराणा क्षेत्रसिंह (1364-82 ई.) की उपपत्नी की संतान चाचा और मेरा उसके पिता मोकल की हत्या कर मेवाड़ पर अधिकार करने के लिए प्रयासरत थे। इस कारण मेवाड़ी सरदार दो भागों में विभाजित हो चुके थे - एक गुट कुम्भा समर्थक तथा दूसरा गुट उसके विरोधियों चाचा, मेरा व महपा पंवार का समर्थक। इस अव्यवस्था का लाभ उठाकर अनेक राजपूत सामन्त अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने के प्रयास करने लगे थे। कुम्भा द्वारा रणमल व राघवदेव के नेतृत्व में भेजी गई सेना ने शीघ्र ही विद्रोहियों का दमन कर दिया। चाचा और मेरा अपने अनेक समर्थकों के साथ मारे गए किन्तु चाचा का पुत्र एक्का व महपा पंवार भागकर मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी की शरण में पहुँचने में सफल हो गए।
शासक बनने के समय कुम्भा के सामने अनेक आन्तरिक और बाह्य सम थी। मेवाड़ के महाराणा क्षेत्रसिंह (1364-82 ई.) की उपपत्नी की संतान चाचा और मेरा उसके पिता मोकल की हत्या कर मेवाड़ पर अधिकार करने के लिए प्रयासरत थे। इस कारण मेवाड़ी सरदार दो भागों में विभाजित हो चुके थे - एक गुट कुम्भा समर्थक तथा दूसरा गुट उसके विरोधियों चाचा, मेरा व महपा पंवार का समर्थक। इस अव्यवस्था का लाभ उठाकर अनेक राजपूत सामन्त अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने के प्रयास करने लगे थे। कुम्भा द्वारा रणमल व राघवदेव के नेतृत्व में भेजी गई सेना ने शीघ्र ही विद्रोहियों का दमन कर दिया। चाचा और मेरा अपने अनेक समर्थकों के साथ मारे गए किन्तु चाचा का पुत्र एक्का व महपा पंवार भागकर मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी की शरण में पहुँचने में सफल हो गए।
महाराणा कुंभा की राजनीतिक उपलब्धियां
मेवाड़-मालवा संघर्षमेवाड़ और मालवा दोनों एक-दूसरे के पड़ौसी राज्य थे और यहाँ के शासक अपने-अपने राज्यों की सीमाओं का विस्तार करना चाहते थे। इस कारण दोनों राज्यों के बीच संघर्ष होना आवश्यक था किन्तु दोनों के बीच संघर्ष का तात्कालीक कारण मालवा के सुल्तान द्वारा कुम्भा के विद्रोही सरदारों को अपने यहाँ शरण देना बना। मोकल के हत्यारे महपा पंवार ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी के पास शरण ले रखी थी। कुम्भा ने सुल्तान को पत्र लिखकर महपा की मांग की, जिसे सुल्तान द्वारा अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए कुम्भा ने मालवा पर आक्रमण करने का फैसला किया। 1437 ई. में सारंगपुर नामक स्थान पर दोनों की सेनाओं के बीच घनघोर संघर्ष हुआ जिसमें पराजित होकर महमूद भाग गया। कुम्भा ने महमूद का पीछा करते हुए मालवा को घेर लिया और उसे कैद कर चित्तौड़ ले आया। 6 माह तक सुल्तान को अपने यहाँ कैद रखने के बाद कुम्भा ने उसे बिना शर्त रिहा कर दिया।
महमूद खिलजी ने अपनी पहली पराजय का बदला लेने के लिए 1443 ई. में कुम्भलगढ़ पर आक्रमण कर दिया। कुम्भा ने किले के दरवाजे के नीचे बाण माता के मंदिर के पास दीपसिंह के नेतृत्व में एक मजबूत सेना नियुक्त कर रखी थी। सात दिन तक चले भयंकर संघर्ष में दीपसिंह व उसके साथियों की मृत्यु के बाद ही मंदिर पर शत्रु सेना अधिकार कर पाई। इस मोर्चे को तोड़ने में महमूद की सेना को इतनी हानि उठानी पड़ी कि मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट कर उसकी टूटी हुई मूर्तियाँ कसाईयों को माँस तौलने के लिए दे दी गई। नन्दी की मूर्ति का चूना पकाकर राजपूतों को पान में खिलाया गया। महमूद की इस सेना ने चित्तौड़ पर अधिकार करने का प्रयास भी किया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। 1446 ई. में महमूद ने एक बार फिर मांडलगढ़ व चित्तौड़ पर अधिकार करने का प्रयास किया किन्तु सफलता उसे इस बार भी न मिल सकी। 1456 ई. में महमूद ने मांडलगढ़ पर अधिकार करने का अंतिम असफल प्रयास किया।
मेवाड़-गुजरात संघर्ष
कुम्भा के समय गुजरात की अव्यवस्था समाप्त हो चुकी थी और वहां के शासक अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार के लिए लालायित थे। मालवा-मेवाड़ के बीच चलने वाले संघर्ष तथा सिरोही व गुजरात की राजनीतिक स्थिति ने मेवाड़-गुजरात के बीच के संघर्ष को आवश्यक बना दिया।
1456 ई. में फिरोज खां की मृत्यु के बाद उसका पुत्र शम्सखां नागौर का नया स्वामी बना किन्तु फिरोज के छोटे भाई मुजाहिदखां ने शम्सखां को पराजित कर नागौर पर अपना अधिकार कर लिया। शम्सखां ने महाराणा कुम्भा की सहायता से नागौर पर पुनः अधिकार कर लिया किन्तु शीघ्र ही उसने कुम्भा की शर्त के विप त नागौर के किले की मरम्मत करवानी प्रारम्भ कर दी। नाराज कुम्भा ने नागौर पर आक्रमण कर अपना अधिकार कर लिया।
शम्सखां ने गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन के साथ अपनी लड़की का विवाह कर उससे सहायता की मांग की। इस पर कुतुबुद्दीन मेवाड़ पर आक्रमण के लिए रवाना हुआ। सिरोही के देवड़ा शासक की प्रार्थना पर उसने अपने सेनापति मलिक शहबान को आबू विजय के लिए भेजा और स्वयं कुम्भलगढ़ की तरफ चला। इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार राणा से धन मिलने के बाद सुल्तान गुजरात लौट आया। इसी समय कुतुबुद्दीन के सामने महमूद खिलजी के प्रतिनिधि ताजखां ने मेवाड़ पर गुजरात-मालवा के संयुक्त आक्रमण की योजना रखी जिसके अनुसार मेवाड़ के दक्षिणी भाग पर गुजरात और मेवाड़ के खास भाग व अहीरवाड़ा पर मालवा का अधिकार होना था।
1456 ई. में चम्पानेर नामक स्थान पर हुई इस आशय की संधि के बाद कुतुबुद्दीन आबू पर अधिकार कर चित्तौड़ की तरफ बढ़ा, वहीं महमूद खिलजी ने मालवा की तरफ से मेवाड़ पर आक्रमण किया। फरिश्ता के अनुसार कुम्भा ने धन देकर आक्रमणकारियों को विदा किया जबकि कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति और रसिकप्रिया के अनुसार कुम्भा ने दोनों सुल्तानों को पराजित कर दिया। मुगल शासकों पर विजय के कारण कुम्भा ‘हिन्दू सुरत्राण’ (हिन्दू बादशाह) के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
महाराणा कुंभा की सांस्कृतिक उपलब्धियां
महाराणा कुंभा की सांस्कृतिक उपलब्धियां बताइए
(maharana kumbha ki sanskritik uplabdhiyan bataiye)
कुम्भा एक वीर योद्धा ही नहीं अपितु कलाप्रेमी और विद्यानुरागी शासक भी था।
इस कारण उसे ‘युद्ध में स्थिर बुद्धि’ कहा गया है। एकलिंग माहात्म्य के
अनुसार वह वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण, राजनीति और साहित्य में
बड़ा निपुण था। महान् संगीतज्ञाता होने के कारण उसे ‘अभिनव भरताचार्य’ तथा
‘वीणावादन प्रवीणेन’ कहा जाता है। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति के अनुसार वह वीणा
बजाने में निपुण था।
कुम्भा की रचनाएँ
महाराणा कुंभा द्वारा रचित ग्रंथ
संगीतराज, संगीत मीमांसा, संगीत क्रम दीपिका व सूड प्रबन्ध उसके द्वारा लिखे
प्रमुख ग्रंथ हैं।
‘संगीतराज’ के पाँच भाग - पाठरत्नकोश, गीतरत्नकोश, वाद्यरत्नकोश, नृत्यरत्नकोश और रसरत्नकोश हैं। उसने चण्डीशतक की व्याख्या, जयदेव के संगीत ग्रंथ गीतगोविन्द और शारंगदेव के संगीतरत्नाकर की टीकाएं भी लिखी। कुम्भा ने महाराष्ट्री (मराठी), कर्णाटी (कन्नड़) तथा मेवाड़ी भाषा में चार नाटकों की रचना की। उसने कीर्तिस्तम्भों के विषय पर एक ग्रंथ रचा और उसको शिलाओं पर खुदवाकर विजय स्तम्भ पर लगवाया जिसके अनुसार उसने जय और अपराजित के मतों को देखकर इस ग्रंथ की रचना की थी। उसका ‘कामराज रतिसार’ नामक ग्रंथ सात अंगों में विभक्त है।
कुम्भा को ‘राणौ रासो’ (विद्वानों का संरक्षक) कहा गया है। उसके दरबार में एकलिंग महात्म्य का लेखक कान्ह व्यास तथा प्रसिद्ध वास्तुशास्त्री मण्डन रहते थे। मण्डन ने देवमूर्ति प्रकरण (रूपावतार),प्रासादमण्डन, राजवल्लभ (भूपतिवल्लभ), रूपमण्डन, वास्तुमण्डन, वास्तुशास्त्र और वास्तुकार नामक वास्तु ग्रंथ लिखे। मण्डन के भाई नाथा ने वास्तुमंजरी और पुत्र गोविन्द ने उद्धारधोरिणी, कलानिधि एवं द्वारदीपिका नामक ग्रंथों की रचना की। ‘कलानिधि’ देवालयों के शिखर विधान पर केन्द्रित है जिसे शिखर रचना व शिखर के अंग-उपांगों के सम्बन्ध में कदाचित एकमात्र स्वतन्त्र ग्रंथ कहा जा सकता है। आयुर्वेदज्ञ के रूप में गोविन्द की रचना ‘सार समुच्यय’ में विभिन्न व्याधियों के निदान व उपचार की विधियाँ दी गई हैं। कुम्भा की पुत्री रमाबाई को ‘वागीश्वरी’ कहा गया है, वह भी अपने संगीत प्रेम के कारण प्रसिद्ध रही है।
कवि मेहा महाराणा कुम्भा के समय का एक प्रतिष्ठित रचनाकार था। उसकी रचनाओं में ‘तीर्थमाला’ प्रसिद्ध है जिसमें 120 तीर्थों का वर्णन है। मेहा कुम्भा के समय के दो सबसे महत्त्वपूर्ण निर्माण कार्यों कुम्भलगढ़ और रणकपुर जैन मंदिर के समय उपस्थित था। उसने बताया है कि हनुमान की जो मूर्तियां सोजत और नागौर से लाई गई थी, उन्हें कुम्भलगढ़ और रणकपुर में स्थापित किया गया। रणकपुर जैन मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह में भी मेहा स्वयं उपस्थित हुआ था। हीरानन्द मुनि को कुम्भा अपना गुरु मानते थे और उन्हें ‘कविराज’ की उपाधि दी।
कविराज श्यामलदास की रचना ‘वीर विनोद’ के अनुसार मेवाड़ के कुल 84 दुर्गों में से अकेले महाराणा कुम्भा ने 32 दुर्गों का निर्माण करवाया। अपने राज्य की पश्चिमी सीमा व तंग रास्तों को सुरक्षित रखने के लिए नाकाबंदी की और सिरोही के निकट बसन्ती का दुर्ग बनवाया। मेरों के प्रभाव को रोकने के लिए मचान के दुर्ग का निर्माण करवाया। केन्द्रीय शक्ति को पश्चिमी क्षेत्र में अधिक शक्तिशाली बनाने व सीमान्त भागों को सैनिक सहायता पहुँचाने के लिए 1452 ई. में परमारों के प्राचीन दुर्ग के अवशेषों पर अचलगढ़ का पुनर्निर्माण करवाया। कुम्भा द्वारा निर्मित कुम्भलगढ़ दुर्ग का परकोटा 36 किमी. लम्बा है जो चीन की दीवार के बाद विश्व की सबसे लम्बी दिवार मानी जाती है।
रणकपुर (पाली) का प्रसिद्ध जैन मंदिर महाराणा कुम्भा के समय में ही धारणक शाह द्वारा बनवाया गया था।
कुम्भा को अपने अंतिम दिनों में उन्माद का रोग हो गया था और वह अपना अधिकांश समय कुम्भलगढ़ दुर्ग में ही बीताता था। यहीं पर उसके सत्तालोलुप पुत्र उदा ने 1468 ई. में उसकी हत्या कर दी।
कुम्भलगढ़ शिलालेख में उसे ‘धर्म और पवित्रता का अवतार’ तथा दानी राजा भोज व कर्ण से बढ़कर बताया गया है।
वह निष्ठावान वैष्णव था और यशस्वी गुप्त सम्राटों के समान स्वयं को ‘परमभागवत्’ कहा करता था। उसने आदिवाराह की उपाधि भी अंगीकार की थी -‘वसुंधरोद्धरणादिवराहेण’(विष्णु के प्राथमिक अवतार वाराह के समान वैदिक व्यवस्था का पुनर्संस्थापक)।
चित्तौड़ दुर्ग का विजय स्तंभ
चित्तौड़ दुर्ग के भीतर स्थित नौ मंजिले और 122 फीट ऊँचे विजय स्तम्भ का निर्माण महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी पर विजय की स्मृति में करवाया। इसका निर्माण प्रधान शिल्पी जैता व उसके तीन पुत्रों - नापा, पोमा और पूंजा की देखरेख में हुआ। अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की कलात्मक प्रतिमायें उत्कीर्ण होने के कारण विजय स्तम्भ को ‘पौराणिक हिन्दू मूर्तिकला का अनमोल खजाना’ (भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष) कहा जाता है। डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने इसे ‘हिन्दू देवी-देवताओं से सजाया हुआ एक व्यवस्थित
संग्रहालय’ तथा गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने ‘पौराणिक देवताओं के अमूल्य कोष’ की संज्ञा दी है। मुख्य द्वार पर भगवान विष्णु की प्रतिमा होने के कारण विजय स्तम्भ को ‘विष्णु ध्वज’ भी कहा जाता है। महाराणा स्वरूपसिंह (1842-61 ई.) के काल में इसका पुनर्निर्माण करवाया गया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान विजय स्तम्भ ने क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा स्रोत का कार्य किया। प्रसिद्ध क्रांतिकारी संगठन ‘अभिनव भारत समिति’ के संविधान के अनुसार प्रत्येक नए सदस्य को मुक्ति संग्राम से जुड़ने के लिए विजय स्तम्भ के नीचे शपथ लेनी पड़ती थी।
इस प्रकार हमने इसमें महाराणा कुंभा और उनके द्वारा लड़े गए युद्ध उनकी
सांस्कृतिक उपलब्धियों और समकालीन राजनीति के प्रति उनके दृष्टिकोण आदि का दिन या
इन सब की विस्तृत व्याख्या वीडियो के माध्यम से ऊपर दिए वीडियो पर क्लिक करके देख
सकते हैं।
ऐसे ही और वीडियो प्राप्त करने के लिए विजिट करें कबीर क्लासेस 58 चैनल निम्नलिखित लिंक द्वारा भी आप पहुंच सकते हो
‘संगीतराज’ के पाँच भाग - पाठरत्नकोश, गीतरत्नकोश, वाद्यरत्नकोश, नृत्यरत्नकोश और रसरत्नकोश हैं। उसने चण्डीशतक की व्याख्या, जयदेव के संगीत ग्रंथ गीतगोविन्द और शारंगदेव के संगीतरत्नाकर की टीकाएं भी लिखी। कुम्भा ने महाराष्ट्री (मराठी), कर्णाटी (कन्नड़) तथा मेवाड़ी भाषा में चार नाटकों की रचना की। उसने कीर्तिस्तम्भों के विषय पर एक ग्रंथ रचा और उसको शिलाओं पर खुदवाकर विजय स्तम्भ पर लगवाया जिसके अनुसार उसने जय और अपराजित के मतों को देखकर इस ग्रंथ की रचना की थी। उसका ‘कामराज रतिसार’ नामक ग्रंथ सात अंगों में विभक्त है।
कुम्भा को ‘राणौ रासो’ (विद्वानों का संरक्षक) कहा गया है। उसके दरबार में एकलिंग महात्म्य का लेखक कान्ह व्यास तथा प्रसिद्ध वास्तुशास्त्री मण्डन रहते थे। मण्डन ने देवमूर्ति प्रकरण (रूपावतार),प्रासादमण्डन, राजवल्लभ (भूपतिवल्लभ), रूपमण्डन, वास्तुमण्डन, वास्तुशास्त्र और वास्तुकार नामक वास्तु ग्रंथ लिखे। मण्डन के भाई नाथा ने वास्तुमंजरी और पुत्र गोविन्द ने उद्धारधोरिणी, कलानिधि एवं द्वारदीपिका नामक ग्रंथों की रचना की। ‘कलानिधि’ देवालयों के शिखर विधान पर केन्द्रित है जिसे शिखर रचना व शिखर के अंग-उपांगों के सम्बन्ध में कदाचित एकमात्र स्वतन्त्र ग्रंथ कहा जा सकता है। आयुर्वेदज्ञ के रूप में गोविन्द की रचना ‘सार समुच्यय’ में विभिन्न व्याधियों के निदान व उपचार की विधियाँ दी गई हैं। कुम्भा की पुत्री रमाबाई को ‘वागीश्वरी’ कहा गया है, वह भी अपने संगीत प्रेम के कारण प्रसिद्ध रही है।
कवि मेहा महाराणा कुम्भा के समय का एक प्रतिष्ठित रचनाकार था। उसकी रचनाओं में ‘तीर्थमाला’ प्रसिद्ध है जिसमें 120 तीर्थों का वर्णन है। मेहा कुम्भा के समय के दो सबसे महत्त्वपूर्ण निर्माण कार्यों कुम्भलगढ़ और रणकपुर जैन मंदिर के समय उपस्थित था। उसने बताया है कि हनुमान की जो मूर्तियां सोजत और नागौर से लाई गई थी, उन्हें कुम्भलगढ़ और रणकपुर में स्थापित किया गया। रणकपुर जैन मंदिर के प्रतिष्ठा समारोह में भी मेहा स्वयं उपस्थित हुआ था। हीरानन्द मुनि को कुम्भा अपना गुरु मानते थे और उन्हें ‘कविराज’ की उपाधि दी।
कविराज श्यामलदास की रचना ‘वीर विनोद’ के अनुसार मेवाड़ के कुल 84 दुर्गों में से अकेले महाराणा कुम्भा ने 32 दुर्गों का निर्माण करवाया। अपने राज्य की पश्चिमी सीमा व तंग रास्तों को सुरक्षित रखने के लिए नाकाबंदी की और सिरोही के निकट बसन्ती का दुर्ग बनवाया। मेरों के प्रभाव को रोकने के लिए मचान के दुर्ग का निर्माण करवाया। केन्द्रीय शक्ति को पश्चिमी क्षेत्र में अधिक शक्तिशाली बनाने व सीमान्त भागों को सैनिक सहायता पहुँचाने के लिए 1452 ई. में परमारों के प्राचीन दुर्ग के अवशेषों पर अचलगढ़ का पुनर्निर्माण करवाया। कुम्भा द्वारा निर्मित कुम्भलगढ़ दुर्ग का परकोटा 36 किमी. लम्बा है जो चीन की दीवार के बाद विश्व की सबसे लम्बी दिवार मानी जाती है।
रणकपुर (पाली) का प्रसिद्ध जैन मंदिर महाराणा कुम्भा के समय में ही धारणक शाह द्वारा बनवाया गया था।
कुम्भा को अपने अंतिम दिनों में उन्माद का रोग हो गया था और वह अपना अधिकांश समय कुम्भलगढ़ दुर्ग में ही बीताता था। यहीं पर उसके सत्तालोलुप पुत्र उदा ने 1468 ई. में उसकी हत्या कर दी।
maharana kumbha ki sanskritik uplabdhiyan |
कुम्भलगढ़ शिलालेख में उसे ‘धर्म और पवित्रता का अवतार’ तथा दानी राजा भोज व कर्ण से बढ़कर बताया गया है।
वह निष्ठावान वैष्णव था और यशस्वी गुप्त सम्राटों के समान स्वयं को ‘परमभागवत्’ कहा करता था। उसने आदिवाराह की उपाधि भी अंगीकार की थी -‘वसुंधरोद्धरणादिवराहेण’(विष्णु के प्राथमिक अवतार वाराह के समान वैदिक व्यवस्था का पुनर्संस्थापक)।
चित्तौड़ दुर्ग का विजय स्तंभ
चित्तौड़ दुर्ग के भीतर स्थित नौ मंजिले और 122 फीट ऊँचे विजय स्तम्भ का निर्माण महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी पर विजय की स्मृति में करवाया। इसका निर्माण प्रधान शिल्पी जैता व उसके तीन पुत्रों - नापा, पोमा और पूंजा की देखरेख में हुआ। अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की कलात्मक प्रतिमायें उत्कीर्ण होने के कारण विजय स्तम्भ को ‘पौराणिक हिन्दू मूर्तिकला का अनमोल खजाना’ (भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष) कहा जाता है। डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने इसे ‘हिन्दू देवी-देवताओं से सजाया हुआ एक व्यवस्थित
संग्रहालय’ तथा गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने ‘पौराणिक देवताओं के अमूल्य कोष’ की संज्ञा दी है। मुख्य द्वार पर भगवान विष्णु की प्रतिमा होने के कारण विजय स्तम्भ को ‘विष्णु ध्वज’ भी कहा जाता है। महाराणा स्वरूपसिंह (1842-61 ई.) के काल में इसका पुनर्निर्माण करवाया गया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान विजय स्तम्भ ने क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा स्रोत का कार्य किया। प्रसिद्ध क्रांतिकारी संगठन ‘अभिनव भारत समिति’ के संविधान के अनुसार प्रत्येक नए सदस्य को मुक्ति संग्राम से जुड़ने के लिए विजय स्तम्भ के नीचे शपथ लेनी पड़ती थी।
ऐसे ही और वीडियो प्राप्त करने के लिए विजिट करें कबीर क्लासेस 58 चैनल निम्नलिखित लिंक द्वारा भी आप पहुंच सकते हो
awesome
जवाब देंहटाएं