google-site-verification=INyWX4YITZAOUjfNBAJ8XpugnZwFjHbMwSrLWY3v6kk Maharana Pratap(महाराणा प्रताप) - KABIR CLASSES 58 -->
Maharana Pratap(महाराणा प्रताप)

Maharana Pratap(महाराणा प्रताप)

Maharana Pratap: महाराणा प्रताप का इतिहास लिखित में

अकबर द्वारा चित्तौड़ आक्रमण और जयमल फत्ता/पत्ता का प्रतिरोध-

मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह के समय 23 अक्टूबर, 1567 को अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग पर आक्रमण कर दिया।
उदयसिंह के सेनापति जयमल और पत्ता ने लम्बे समय तक दुर्ग की रक्षा के लिए सफल प्रतिरोध किया किन्तु चार माह के लम्बे घेरे के बाद मुगल सेना बारूद की सहायता से दुर्ग की दीवार तोड़ने में सफल रही। प्रत्यक्ष संघर्ष में अकबर की बन्दूक से घायल होने के बावजूद जयमल ने अपने कुटुम्बी कल्ला के कंधों पर बैठकर शत्रु से लोहा लिया। जयमल और पत्ता की मृत्यु के बाद ही अकबर 25 फरवरी 1568 को चित्तौड़ पर अधिकार कर पाया।
इस सम्बन्ध में एक कहावत भी प्रचलित है-
भूख न मेटे मेड़तो, न मेटे नागोर।
रजवट भूख अनोखड़ी, मर्याँ मिटे चित्तौड़।।
अकबर इन दोनों योद्धाओं की वीरता से इतना मुग्ध हुआ कि आगरा के किले के प्रवेश द्वार पर उनकी गजारूढ़ प्रतिमायें स्थापित करवाई जिनको देखने का उल्लेख फ्रांसीसी यात्री बर्नियर ने अपने यात्रा वृत्तांत ‘ट्रेवल्स इन द मुगल एम्पायर’ में किया है। धर्मांध औरंगजेब के समय इन मूर्तियों को कालान्तर में हटवा दिया गया।

महाराणा प्रताप का प्रारंभिक जीवन और राज्यारोहण-

अगर आप इसे वीडियो से समझना चाहते हो तो यहां क्लिक करें

महाराणा प्रताप का जन्म

विक्रम संवत् 1597, ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया (9 मई, 1540 ई.) कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ। वे मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह के जयेष्ठ पुत्र थे तथा उनकी माँ का नाम जैवन्ता बाई (जीवंत कंवर या जयवंती बाई) था। किन्तु उदयसिंह की एक अन्य रानी धीरकंवर थी। धीरकंवर अपने पुत्र जगमाल को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाने के लिए उदयसिंह को राजी करने में सफल रही। उदयसिंह की मृत्यु के बाद जगमाल ने स्वयं को मेवाड़ का महाराणा घोषित कर दिया किन्तु सामन्तों ने प्रताप का समर्थन करते हुए उसे मेवाड़ के सिंहासन पर बैठा दिया। इस प्रकार होली के त्यौंहार के दिन 28 फरवरी, 1572 ई. को गोगूंदा में महाराणा प्रताप का राजतिलक हुआ। महाराणा प्रताप के राज्यारोहण के समय मेवाड़ की स्थितियाँ काफी खराब थी। मुगलों के साथ चलने वाले दीर्घकालीन युद्धों के कारण मेवाड़ की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। चित्तौड़ सहित मेवाड़ के अधिकांश भागों पर मुगलों का अधिकार हो चुका था और अकबर मेवाड़ के बचे हुए क्षेत्र पर भी अपना अधिकार करना चाहता था। इस समय के चित्तौड़ के विध्वंस और उसकी दीन दशा को देखकर कवियों ने उसे ‘आभूषण रहित विधवा स्त्री’ की उपमा तक दे दी थी।
शासक बनने पर प्रताप ने आमेर, बीकानेर व जैसलमेर जैसी रियासतों की तरह अकबर की अधीनता स्वीकार न कर मातृभुमि की स्वधीनता को महत्व दिया और अपने वंश की प्रतिष्ठा के अनुकूल संघर्ष का मार्ग चुना। आक्रमणों से प्रताप के अन्य सांमतों के साहस में कमी आने लगी। ऐसी स्थिति में प्रताप ने सब सांमतों को एकत्रित कर उनके सामने रघुकुल की मर्यादा की रक्षा करने और मेवाड़ को पूर्ण स्वतंत्र करने का विष्वास दिलाया और प्रतिज्ञा की कि जब तक मेवाड़ को स्वतंत्र नहीं करा लूंगा तब तक राज महलों में नहीं रहुंगा, पलंग पर नहीं सोऊंगा और पंच धातु (सोना, चांदी, तांबा और पीतल, काँसा) के बर्तनों में भोजन नहीं करूँगा। आत्मविश्वास के साथ मेवाड़ के स्वामीभक्त सरदारों तथा भीलों की सहायता से शक्तिशाली सेना का संगठन किया और मुगलों से अधिक दूर रहकर युद्ध का प्रबन्ध करने के लिए अपनी राजधानी गोगुन्दा से कुंभलगढ़ स्थानान्तरित की।
अकबर को प्रताप द्वारा मेवाड़ राज्य में उसकी सत्ता के विरुद्ध किए जा रहे प्रयत्नों की जानकारी मिलने लगी। अतः अकबर ने पहल करते हुए प्रताप के राज्यारोहण के वर्ष से ही उसे अधीनता स्वीकार करवाने के लिए एक के बाद एक चार दूत भेजे। महाराणा प्रताप के सिंहासन पर बैठने के छः माह बाद सितम्बर 1572 ई. में अकबर ने अपने अत्यन्त चतुर व वाक्पटु दरबारी जलाल खां कोरची के साथ संधि प्रस्ताव भेजा। अगले वर्ष अकबर ने प्रताप को अपने अधीन में करने के लिए क्रमशः तीन अन्य दरबारी - मानसिंह, भगवंतदास और टोडरमल भेजे किन्तु प्रताप किसी भी कीमत पर अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुआ।

हल्दीघाटी का युद्ध-


मेवाड़ पर आक्रमण की योजना को कार्यरूप में परिणत करने के लिए मार्च 1576 ई. में अकबर स्वयं अजमेर जा पहुँचा। वहीं पर मानसिंह को मेवाड़ के विरूद्ध भेजी जाने वाली सेना का सेनानायक घोषित किया। 3 अप्रेल 1576 ई. को मानसिंह सेना लेकर मेवाड़ विजय के लिए चल पड़ा। दो माह माण्डलगढ़ में रहने के बाद अपने सैन्य बल में वृद्धि कर मानसिंह खमनौर गांव के पास आ पहुँचा। इस समय मानसिंह के साथ गाजीखां बदख्शी, ख्वाजा गयासुद्दीन अली, आसिफ खां, सैयद अहमद खां, सैयद हाशिम खां, जगन्नाथ कछवाह, सैयद राजू, मिहत्तर खां, भगवंतदास का भाई माधोसिंह, मुजाहिद बेग आदि सरदार उपस्थित थे। मुगल इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसी हिन्दू को इतनी बड़ी सेना का सेनापति बना कर भेजा गया था। मानसिंह को मुगल सेना का प्रधान सेनापति बनाये जाने से मुस्लिम दरबारियों में नाराजगी फैल गई। बदायूंनी ने अपने संरक्षक नकीब खां से भी इस युद्ध में चलने के लिए कहा तो उसने उत्तर दिया कि ‘‘यदि इस सेना का सेनापति एक हिन्दू न होता, तो मैं पहला व्यक्ति होता जो इस युद्ध में शामिल होता।’’
ग्वालियर के राजा रामशाह और पुराने अनुभवी यौद्धाओं ने राय दी कि मुगल सेना के अधिकांश सैनिकों को पर्वतीय भाग में लड़ने का अनुभव नहीं है। अतः उनको पहाड़ी भाग में घेर कर नष्ट कर देना चाहिए। किन्तु युवा वर्ग ने इस राय को चुनौती देते हुए इस बात पर जोर दिया कि मेवाड़ के बहादुरों को पहाड़ी भाग से बाहर निकल कर शत्रु सेना को खुले मैदान में पराजित करना चाहिए। अंत में मानसिंह ने बनास नदी के किनारे मोलेला में अपना षिविर स्थापित किया तथा प्रताप ने मानसिंह से छः मील दूर लोसिंग गांव में पड़ाव डाला। मुगल सेना में हरावल (सेना का सबसे आगे वाला भाग) का नेतृत्व सैयद हाशिम कर रहा था। उसके साथ मुहम्मद बादख्शी रफी, राजा जगन्नाथ और आसफ खां थे। प्रताप कीे सेना के दो भाग थे, प्रताप की सेना के हरावल में हकीम खां सूरी, अपने पुत्रों सहित ग्वालियर का रामशाह, पुरोहित गोपीनाथ, शंकरदास, चारण जैसा, पुरोहित जगन्नाथ, सलूम्बर का चूड़ावत कृष्णदास, सरदारगढ़ का भीमसिंह, देवगढ़ का रावत सांगा, जयमल मेड़तिया का पुत्र रामदास आदि षामिल थे। दूसरे भाग का नेतृत्व सेना के केन्द्र में रह कर स्वयं महाराणा कर रहे थे, जिनके साथ भामाशाह व उनका भाई ताराचन्द था। 18 जून 1576 प्रातःकाल प्रताप ने लोसिंग से हल्दीघाटी में गाोगुन्दा की ओर बढ़ती सेना का सामना करने का निष्चय कर कूच किया। युद्ध के प्रथम भाग में मुगल सेना का बल तोड़ने के लिए राणा ने अपने हाथी लूना को आगे बढ़ाया जिसका मुकाबला मुगल हाथी गजमुख (गजमुक्ता) ने किया। गजमुख घायल होकर भागने ही वाला था कि लूना का महावत तीर लगने से घायल हो गया और लूना लौट पड़ा। इस पर महाराणा के विख्यात हाथी रामप्रसाद को मैदान में उतारना पड़ा।
युद्ध का प्रारम्भ प्रताप की हरावल सेना के भीषण आक्रमण से हुआ। मेवाड़ के सैनिकों ने अपने तेज हमले और वीरतापूर्ण युद्ध-कौशल द्वारा मुगल पक्ष की अग्रिम पंक्ति व बायें पाश्र्व को छिन्न-भिन्न कर दिया। बदायूंनी के अनुसार इस हमले से घबराकर मुगल सेना लूणकरण के नेतृत्व में भेड़ों के झुण्ड की तरह भाग निकली। इस समय जब प्रताप के राजपूत सैनिकों और मुगल सेना के राजपूत सैनिकों के मध्य फर्क करना कठिन हो गया तो बदायूंनी ने यह बात मुगल सेना के दूसरे सेनापति आसफ खां से पूछी। आसफ खां ने कहा कि ‘‘तुम तो तीर चलाते जाओ। राजपूत किसी भी ओर का मारा जाय, इससे इस्लाम का तो लाभ ही होगा।’’ मानसिंह को मुगल सेना का सेनापति बनाने का बदायूंनी भी विरोधी था, किन्तु जब उसने मानसिंह को प्रताप के विरूद्ध बड़ी वीरता और चातुर्य से लड़ते देखा तो प्रसन्न हो गया।
युद्ध के दौरान सैयद हाशिम घोड़े से गिर गया और आसफ खां ने पीछे हटकर मुगल सेना के मध्य भाग में जाकर शरण ली। जगन्नाथ कछवाहा भी मारा जाता किन्तु उसकी सहायता के लिए चंदावल (सेना में सबसे पीछे की पंक्ति) से सैन्य टुकड़ी लेकर माधोसिंह कछवाहा आ गया। मुगल सेना के चंदावल में मिहतर खां के नेतृत्व में आपात स्थिति के लिए सुरक्षित सैनिक टुकड़ी रखी गई थी। अपनी सेना को भागते देख मिहतर खां आगे की ओर चिल्लाता हुआ आया कि ‘‘बादशाह सलामत एक बड़ी सेना के साथ स्वयं आ रहे हैं।’’ इसके बाद स्थिति बदल गई और भागती हुई मुगल सेना नये उत्साह और जोश के साथ लौट पड़ी।
राणा प्रताप अपने प्रसिद्ध घोड़े ‘चेतक’ पर सवार होकर लड़ रहा था और मानसिंह ‘मरदाना’ नामक हाथी पर सवार था। रणछोड़ भट्ट कृत संस्कृत ग्रंथ ‘अमरकाव्य’ में वर्णन है कि प्रताप ने बड़े वेग के साथ चेतक के अगले पैरों को मानसिंह के हाथी के मस्तक पर टिका दिया और अपने भाले से मानसिंह पर वार किया। मानसिंह ने होदे में नीचे झुक कर अपने को बचा लिया किन्तु उसका महावत मारा गया। इस हमले में मानसिंह के हाथी की सूंड पर लगी तलवार से चेतक का एक अगला पैर कट गया। प्रताप को संकट में देखकर बड़ी सादड़ी के झाला बीदा ने राजकीय छत्र स्वयं धारण कर युद्ध जारी रखा और प्रताप ने युद्ध को पहाड़ों की ओर मोड लिया। हल्दीघाटी से कुछ दूर बलीचा नामक स्थान पर घायल चेतक की मृत्यु हो गई, जहाँ उसका चबूतरा आज भी बना हुआ है। हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से झाला बीदा, मानसिंह सोनगरा, जयमल मेड़तिया का पुत्र रामदास, रामशाह और उसके तीन पुत्र (शालिवाहन, भवानीसिंह व प्रतापसिंह) वीरता का प्रदर्शन करते हुए मारे गए। सलूम्बर का रावत कृष्णदास चूड़ावत, घाणेराव का गोपालदास, भामाशाह, ताराचन्द आदि रणक्षेत्र में बचने वाले प्रमुख सरदार थे।
जब युद्ध पूर्ण गति पर था,तब प्रताप ने युद्ध स्थिति में परिवर्तन किया। युद्ध को पहाड़ों की ओर मोड़ दिया। मानसिंह ने मेवाड़ी सेना का पीछा नहीं किया। मुगलों द्वारा प्रताप की सेना का पीछा न करने के बदायूनी ने तीन कारण बताये हैं-
1.जून माह की झुलसाने वाली तेज धूप
2.मुगल सेना की अत्यधिक थकान से युद्ध करने क्षमता न रहना।
3. मुगलों को भय था कि प्रताप पहाड़ों में घात लगाए हुए है और उसके अचानक आक्रमण से अत्यधिक सैनिकों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा।
इस तरह अकबर की इच्छानुसार वह न तो प्रताप को पकड़ सका अथवा मार सका और न ही मेवाड़ की सैन्य शक्ति का विनाश कर सका।अकबर का यह सैन्य अभियान असफल रहा तथा पासा महाराणा प्रताप के पक्ष में था। युद्ध के परिणाम से खिन्न अकबर ने मानसिंह और आसफ खां की कुछ दिनों के लिये ड्योढ़ी बंद कर दी अर्थात् उनको दरबार में सम्मिलित होने से वंचित कर दिया। शंहशाह अकबर की विशाल साधन सम्पन्न सेना का गर्व मेवाड़ी सेना ने ध्वस्त कर दिया।
जब राजस्थान के राजाओं में मुगलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर उनकी अधीनता मानने की होड़ मची हुई थी, उस समय प्रताप द्वारा स्वतन्त्रता का मार्ग चुनना निसंदेह सराहनीय कदम था।
अगर आप इसे वीडियो से समझना चाहते हो तो यहां क्लिक करें


शाहबाज खान के अभियान-

हल्दीघाटी युद्ध के बाद अकबर ने प्रताप को पूरी तरह से कुचलने के लिए मीरबख्शी शाहबाज खां को तीन बार प्रताप के विरूद्ध भेजा। 15 अक्टूबर 1577 ई. को शाहबाज खां को प्रथम बार मेवाड़ के लिए रवाना किया गया।
प्रथम आक्रमण के समय शाहबाज खां लवाड़ा गांव पर अधिकार कर कुम्भलगढ़ का घेरा डाला, प्रताप राव अक्षयराज के पुत्र भाण सोनगरा को किलेदार नियुक्त कर अपने सैनिकों के साथ ईडर की तरफ निकल गया और चुलिया गांव में ठहरा। यहाँ भामाशाह और उसके भाई ताराचन्द ने पच्चीस लाख रूपये एवं बीस हजार अशर्फियां राणा को भेंट की। भामाशाह की सैनिक एवं प्रशासनिक क्षमता को देखकर प्रताप ने इसी समय रामा महासहाणी के स्थान पर उसे मेवाड़ का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया।
भामाशाह से आर्थिक सहायता प्राप्त हो जाने के बाद प्रताप ने सेना का पुनर्गठन किया और जुलाई 1582 ई. में अवसर देखकर दिवेर (राजसमंद) के दर्रे पर कायम मुगल थाने पर हमला किया। इस थाने पर अकबर के चाचा सुल्तान खां का नियन्त्रण था। संघर्ष के दौरान अमरसिंह ने अपना भाला इतनी शक्ति से मारा कि वह सुल्तान खां मुगल को बेधता हुआ उसके घोड़े के भी आर-पार हो गया। दिवेर की विजय के बाद इस पर्वतीय भाग पर प्रताप का अधिकार हो गया। कर्नल टाॅड ने दिवेर के युद्ध को ‘मेवाड़ के मेराथन’ की संज्ञा दी है।

प्रताप के विरूद्ध अंतिम अभियान-

अकबर ने 6 दिसम्बर 1584 ई. को जगन्नाथ कछवाहा (आमेर के राजा भारमल का छोटा पुत्र) को अजमेर का सूबेदार बनाकर मेवाड़ पर आक्रमण के लिए भेजा। जगन्नाथ कुछ भी विशेष नहीं कर पाया और निराश होकर 1585 ई. में मेवाड़ से चला गया। जगन्नाथ कछवाह का आक्रमण मेवाड़ पर प्रताप के समय अंतिम आक्रमण सिद्ध हुआ। अब अकबर को विश्वास हो गया कि महाराणा प्रताप को पकड़ पाना अथवा उससे अपनी प्रभुसत्ता स्वीकार कराने का प्रयत्न केवल एक कल्पना मात्र है। साथ ही अकबर अब पश्चिमोत्तर समस्या में उलझ गया गया था। इस कारण प्रताप के विरुद्ध अभियान हमेशा के लिए बंद कर गए।

महाराणा प्रताप की मृत्यु कैसे हुई

धनुष की प्रत्यंचा खींचने के प्रयत्न में प्रताप घायल हो गया और उनका 19 जनवरी 1597 ई. को 57 वर्ष की आयु में देहान्त हो गया। चावंड से ढ़ाई किलोमीटर दूर बण्डोली गांव के निकट बहने वाले नाले के किनारे उनका दाह-संस्कार किया गया। दूरसा आढ़ा ने प्रताप के बारे में लिखा है:-
अस लेगो अणदाग पाघ लेगो अणनामी।
गौ आडा गवड़ाय, जिको बहतो धुरवामी।।
नवरोजे नह गयो, नगौ आतसां नवल्ली।
नगौ झरोखा हेठ, जेठ दुनियाण दहल्ली।।
(जिसने कभी अपने घोड़ों को शाही सेना में भेज कर दाग नहीं लगवाया, जिसने अपनी पगड़ी किसी के आगे नहीं झुकाई, जो सदा शत्रुओं के प्रति व्यंग्य भरी कविताएं गाता था, जो समस्त भारत के भार की गाड़ी को बायें कन्धे से खींचने में समर्थ था, जो कभी नौरोज में नहीं गया, जो शाही डेरों में नही गया और जिस अकबर के झरोखे की प्रतिष्ठा विश्व भर में व्याप्त थी, वह उसके नीचे भी नहीं आया। ऐसा गहलोत (महाराणा प्रताप) विजय के साथ मृत्यु के पास चला गया।)

प्रताप को लगभग 12 वर्ष शांति और स्वाधीनता का उपयोग करने का अवसर मिला। इस अवसर का लाभ उठाकर उसने मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम, उत्तर-पूर्व तथा मध्य भाग में फैले हुए मुगल थानों पर धावे बोलने प्रारम्भ कर दिये। शीघ्र ही उसने 36 स्थानों के मुगल थाने उठा दिये, जिनमें उदयपुर, मोही, गोगुन्दा, मांडल, पानरवा आदि प्रमुख थे। उदयपुर से प्राप्त 1588 ई. के एक लेख में प्रताप द्वारा त्रिवेदी सादुलनाथ को जहाजपुर के निकट मंडेर की जागीर प्रदान करने का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि प्रताप ने उस समय तक मेवाड़ के उत्तर-पूर्वी प्रदेश पर पुनः अधिकार कर लिया था और अपने विश्वसनीय अनुयायियों को जागीरें प्रदान कर पुनर्निर्माण के कार्य में व्यस्त था।1585 ई. के बाद उसने अपनी राजधानी चावण्ड के विकास पर पूरा ध्यान दिया और यहाँ अनेक महल व मंदिर बनवाए। जीवधर की रचना ‘अमरसार’ के अनुसार प्रताप ने ऐसा सृदृढ़ शासन स्थापित कर लिया था कि महिलाओं और बच्चों तक को किसी से भय नहीं रहा। आन्तरिक सुरक्षा भी लोगों को इतनी प्राप्त हो गई थी कि बिना अपराध के किसी को कोई दण्ड नहीं दिया जाता था। उसने शिक्षा प्रसार के भी प्रयत्न किए।

विद्वानों के संरक्षक के रूप में प्रताप-

1588 ई. के अंत तक प्रताप ने चित्तौड़, माण्डलगढ़ तथा अजमेर से उनको जोड़ने वाले अंतर्वर्ती क्षेत्रों के अतिरिक्त प्रायः सम्पूर्ण मेवाड़ पर अधिकार कर लिया। मुगल आक्रमण बंद होने के कारण प्रताप ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष चावंड में शांतिपूर्वक राज्य करते हुए बिताए।
शांतिकाल में राजधानी चावंड ने बड़ी तरक्की की। यहाँ कलात्मक भवनों एवं मंदिरों का निर्माण हुआ। व्यापार-वाणिज्य, कला, साहित्य और संगीत को प्रोत्साहन मिलने लगा। प्रताप के संरक्षण में चावण्ड में रहते हुए चक्रपाणि मिश्र ने तीन संस्कृत ग्रंथ - राज्याभिषेक पद्धति, मुहुत्र्तमाला एवं विश्ववल्लभ लिखे। ये ग्रंथ क्रमशः गद्दीनशीनी की शास्त्रीय पद्धति, ज्योतिषशास्त्र और उद्यान विज्ञान के विषयों से सम्बन्धित है। प्रताप के राज्यकाल में भामाशाह के भाई ताराचंद की प्रेरणा से 1595 ई. में हेमरत्न सूरि द्वारा ‘गोरा बादल कथा पद्मिनी चैपई’ काव्य ग्रंथ की रचना की गई। सैनिकों में त्याग और बलिदान की भावना उत्पन्न करने के लिए चारण कवि रामा सांदू और माला सांदू प्रताप की सेना के साथ रहते थे। रामा सांदू ने प्रताप के शौर्य का गुणगान करते हुए लिखा है कि ‘अकबर एक पक्षी के समान है जिसने अनन्त आकाश रुपी प्रताप की थाह पाने के लिए उड़ान भर ली, पर वह उसका पार नहीं पा रहा है। अंत में हार कर उसे अपनी हद में रहना पड़ा।’ इसी काल में चावंड में प्रसिद्ध चित्रकार निसारदी (नासिरूद्दीन) हुआ।

महाराणा प्रताप की चारित्रिक विशेषताएं-

1. निहत्थे पर वार नहीं करना- उन्होंने कभी भी निहत्थे पर वार नहीं करने का प्रण ले रखा था। वे सदैव दो तलवार रखते थे- एक तलवार दुश्मन को देने के लिए भी रखते थे।
2. मेवाड का राजचिह्न सामाजिक समरसता प्रतीक है। एक तरफ क्षत्रिय व एक तरफ भील योद्धा, सर्व समाज समभाव का सूचक है। महाराणा प्रताप सभी के प्रिय थे, सब लोग उनके लिए प्राण देने के लिए तैयार रहते थे।
3. स्वतंत्रता प्रेमी- महाराणा प्रताप स्वाधीनता पे्रमी थे। अनेक कष्टों के बाद भी किसी भी कीमत पर अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए।
4. धर्म रक्षक व राजचिह्न सम्मान - धर्म रक्षक व राजचिह्न की सदैव रक्षा की। उनकी मान्यता थी, जो दृढ़ राखे धर्म को तिहि राखे करतार।
5. शील-स्त्री सम्मान - नारी सम्मान के लिए भारतीय परम्परा का उदाहरण प्रस्तुत किया। कुंवर अमरसिंह ने 1580 ई. में जब अचानक शेरपुर के मुगल शिविर पर आक्रमण कर सूबेदार अब्दुर्रहीम खानखाना के परिवार को बंदी बना लिया गया, तब प्रताप ने खानखाना की स्त्रियों एवं बच्चों को ससम्मान एवं सुरक्षित वापस लौटाने के आदेश भिजवाये।
6. प्रेरणा पुरूष- महाराणा प्रताप बाद में शिवाजी, छत्रसाल से लेकर अंग्रेजों के विरूद्ध स्वाधीनता संग्राम में स्वातंत्र्य योद्धाओं के प्रेरता बने।
7. उनकी विलक्षण सहयोगी प्रतिभा के कारण ही भामाशाह ने अपनी समस्त सम्पदा महाराणा के चरणों में समर्पित कर दी।
यदि आप इतिहास से संबंधित और जानना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें

0 Response to "Maharana Pratap(महाराणा प्रताप)"

एक टिप्पणी भेजें

If you have any doubts. Please tell me know.

ARTICLE ADVERTISING 1

ARTICLE ADVERTISING 2

ADVERTISING UNDER THE ARTICLE