तत्वदर्शी संत की आवश्यकता क्यों हैं ?
नमस्कार दोस्तों मैं हूं, अशोक कुमार और आज हम बात करते हैं तत्वदर्शी संत के बारे में तत्वदर्शी संत कौन होता है? उसकी क्या पहचान है? तत्वदर्शी संत के बारे में हमारे साथ ग्रंथ क्या कहते हैं इसका विवेचन हम करेंगे।
कबीर परमात्मा अपने बारे में कहते हैं कि मेरी जानकारी तत्वदर्शी संत ही प्रदान करेगा मेरी जानकारी वेद पुराणों में नहीं है वेद तो सिर्फ मेरा भेद/जानकारी प्रदान करता है कि वह जानकारी तत्वदर्शी संत प्रदान करेगा।
कबीर, बेद मेरा भेद है, ना बेदन के मांही। जोन बेद से मैं मिलूँ, बेद जानत नांही।।
प्रमाण:- यजुर्वद अध्याय 40 श्लोक 10 में कहा है कि परमात्मा का यथार्थ ज्ञान
(धीराणाम्) तत्वदर्शी संत बताते हैं, उनसे (श्रुणूं) सुनो।
गीता शास्त्रा चारों वेदों का संक्ष्िाप्त रूप है। इसमें भी कहा है कि परमात्मा तत्वज्ञान
यानि अपनी जानकारी तथा प्राप्ित का ज्ञान अपने मुख कमल से वाणी बोलकर बताता है।
उस ज्ञान से मोक्ष होगा। तथा सत्यलोक प्राप्ित होगी। उस ज्ञान को तत्वदर्शी संतों के पास
जाकर समझ।(गीता अध्याय 4 श्लोक 32ए 34 में)
कुरान शरीफ सूरत फुर्कानि 25 आयत नं. 52 से 59 में कहा है कि:-
जिस परमेश्वर ने छः दिन में सृष्िट रची। फिर तख्त पर जा विराजा।(जा बैठा) वह
अल्लाह कबीर है। उसकी जानकारी किसी बाखबर (तत्वदर्शी संत) से पूछो।
तत्वदर्शी संत उस पूर्ण परमात्मा की भक्ति विधि प्रदान करता है जिससे साधक जन्म मरण के रोग से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है और अपने सनातन यानी सत्य लोक अर्थात सतलोक में निवास करता है जिसकी जानकारी गीता जी के अध्याय 15 श्लोक 4 और अध्याय 18 श्लोक 62 में बताया गया है कि उस अविनाशी लोग को प्राप्त करो जो कभी नाश में नहीं आता।
संत गरीबदास जी सतगुरु की महिमा के बारे में बताते हैं कि 👇
गरीब, अमर अनाहद नाम है, निरभय अपरंपार। रहता रमता राम है, सतगुरु चरण जुहार।।43।।
सरलार्थ:- परमात्मा रमता यानि विचरण करता हुआ चलता-फिरता है। वह सतगुरू
रूप में मिलता है। उसके चरणों में प्रणाम करके भक्ित की भीख प्राप्त करें। उनके द्वारा
दिया गया नाम अनाहद (सीमा रहित) अमर (अविनाशी) मोक्ष देने वाला है। वह नाम प्राप्त
कर जो निर्भय बनाता है। उसकी महिमा का कोई वार-पार नहीं है अर्थात् वास्तविक मंत्र की
महिमा असीम है।
पूर्ण परमात्मा से परिचित करवाने और सतलोक जाने के लिए हमें तत्वदर्शी संत की शरण में जाना होगा जिसकी पहचान पवित्र गीता जी के निम्न अध्यायों के अंतर बताई गई है 👇
अध्याय 15 का श्लोक 1
ऊध्र्वमूलम्, अधःशाखम्, अश्वत्थम्, प्राहुः, अव्ययम्,
छन्दांसि, यस्य, पर्णानि, यः, तम्, वेद, सः, वेदवित्।।1।।
अनुवाद: (ऊध्र्वमूलम्) ऊपर को पूर्ण परमात्मा आदि पुरुष परमेश्वर रूपी जड़ वाला (अधःशाखम्) नीचे को तीनों गुण अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु व तमगुण शिव रूपी शाखा वाला (अव्ययम्) अविनाशी (अश्वत्थम्) विस्तारित पीपल का वृृक्ष है, (यस्य) जिसके (छन्दांसि) जैसे वेद में छन्द है ऐसे संसार रूपी वृृक्ष के भी विभाग छोटे-छोटे हिस्से या टहनियाँ व (पर्णानि) पत्ते (प्राहुः) कहे हैं (तम्) उस संसाररूप वृक्षको (यः) जो (वेद) इसे विस्तार से जानता है (सः) वह (वेदवित्) पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी है। (1)
भावार्थ:- गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि अर्जुन पूर्ण परमात्मा के तत्वज्ञान को जानने वाले तत्वदर्शी संतों के पास जा कर उनसे विनम्रता से पूर्ण परमात्मा का भक्ति मार्ग प्राप्त कर, मैं उस पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग नहीं जानता। इसी अध्याय 15 श्लोक 3 में भी कहा है कि इस संसार रूपी वृृक्ष के विस्तार को अर्थात् सृृष्टि रचना को मैं यहाँ विचार काल में अर्थात् इस गीता ज्ञान में नहीं बता पाऊँगा क्योंकि मुझे इस के आदि (प्रारम्भ) तथा अन्त (जहाँ तक यह फैला है अर्थात् सर्व ब्रह्मण्डों का विवरण) का ज्ञान नहीं है। तत्वदर्शी सन्त के विषय में इस अध्याय 15 श्लोक 1 में बताया है कि वह तत्वदर्शी संत कैसा होगा जो संसार रूपी वृृक्ष का पूर्ण विवरण बता देगा कि मूल तो पूर्ण परमात्मा है, तना अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म है, डार ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष है तथा शाखा तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी)है तथा पात रूप संसार अर्थात् सर्व ब्रह्मण्ड़ों का विवरण बताएगा वह तत्वदर्शी संत है।
अध्याय 15 का श्लोक 2
अधः, च, ऊध्र्वम्, प्रसृृताः, तस्य, शाखाः, गुणप्रवृृद्धाः,
विषयप्रवालाः, अधः, च, मूलानि, अनुसन्ततानि, कर्मानुबन्धीनि, मनुष्यलोके।।2।।
अनुवाद: (तस्य) उस वृक्षकी (अधः) नीचे (च) और (ऊध्र्वम्) ऊपर (गुणप्रवृद्धाः) तीनों गुणों ब्रह्मा-रजगुण, विष्णु-सतगुण, शिव-तमगुण रूपी (प्रसृता) फैली हुई (विषयप्रवालाः) विकार- काम क्रोध, मोह, लोभ अहंकार रूपी कोपल (शाखाः) डाली ब्रह्मा, विष्णु, शिव (कर्मानुबन्धीनि) जीवको कर्मोंमें बाँधने की (मूलानि) जड़ें मुख्य कारण हैं (च) तथा (मनुष्यलोके) मनुष्यलोक – स्वर्ग,-नरक लोक पृथ्वी लोक में (अधः) नीचे - नरक, चैरासी लाख जूनियों में ऊपर स्वर्ग लोक आदि में (अनुसन्ततानि) व्यवस्थित किए हुए हैं। (2)
अध्याय 15 का श्लोक 3
न, रूपम्, अस्य, इह, तथा, उपलभ्यते, न, अन्तः, न, च, आदिः, न, च,
सम्प्रतिष्ठा, अश्वत्थम्, एनम्, सुविरूढमूलम्, असङ्गशस्त्रोण, दृृढेन, छित्वा।।3।।
अनुवाद: (अस्य) इस रचना का (न) न (आदिः) शुरूवात (च) तथा (न) न (अन्तः) अन्त है (न) न (तथा) वैसा (रूपम्) स्वरूप (उपलभ्यते) पाया जाता है (च) तथा (इह) यहाँ विचार काल में अर्थात् मेरे द्वारा दिया जा रहा गीता ज्ञान में पूर्ण जानकारी मुझे भी (न) नहीं है (सम्प्रतिष्ठा) क्योंकि सर्वब्रह्मण्डों की रचना की अच्छी तरह स्थिति का मुझे भी ज्ञान नहीं है (एनम्) इस (सुविरूढमूलम्) अच्छी तरह स्थाई स्थिति वाला (अश्वत्थम्) मजबूत स्वरूपवाले (असङ्गशस्त्रोण) निर्लेप तत्वज्ञान रूपी (दृढेन्) दृढ़ शस्त्र से अर्थात् निर्मल तत्वज्ञान के द्वारा (छित्वा) काटकर अर्थात् निरंजन की भक्ति को क्षणिक जानकर। (3)
अध्याय 15 का श्लोक 4
ततः, पदम्, तत्, परिमार्गितव्यम्, यस्मिन्, गताः, न, निवर्तन्ति, भूयः,
तम्, एव्, च, आद्यम्, पुरुषम्, प्रपद्ये, यतः, प्रवृत्तिः, प्रसृता, पुराणी।।4।।
अनुवाद: {जब गीता अध्याय 4 श्लोक 34 अध्याय 15 श्लोक 1 में वर्णित तत्वदर्शी संत मिल जाए} (ततः) इसके पश्चात् (तत्) उस परमेश्वर के (पदम्) परम पद अर्थात् सतलोक को (परिमार्गितव्यम्) भलीभाँति खोजना चाहिए (यस्मिन्) जिसमें (गताः) गये हुए साधक (भूयः) फिर (न, निवर्तन्ति) लौटकर संसारमें नहीं आते (च) और (यतः) जिस परम अक्षर ब्रह्म से (पुराणी) आदि (प्रवृत्तिः) रचना-सृष्टि (प्रसृता) उत्पन्न हुई है (तम्) उस (आद्यम्) सनातन (पुरुषम्) पूर्ण परमात्मा की (एव) ही (प्रपद्ये) मैं शरण में हूँ। पूर्ण निश्चय के साथ उसी परमात्मा का भजन करना चाहिए।
पवित्र गीता जी पवित्र वेदों में तथा पवित्र कुरान शरीफ और पवित्र बाइबल में जिस सद्गुरु/तत्वदर्शी संत/बाखबर की बात कही गई है वह संत रामपाल जी महाराज जी उन्हें के पास पूर्ण परमात्मा की भक्ति विधि है जिनसे सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों जीवन सफल होंगे और सब लोग की प्राप्ति होगी जहां जाने के बाद जन्म मरण नहीं होता।
जगतगुरु तत्त्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी से निःशुल्क नाम दीक्षा लेने के लिए कृपया यह फॉर्म भरें 👇🏻
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कबीर परमात्मा अपने बारे में कहते हैं कि मेरी जानकारी तत्वदर्शी संत ही प्रदान करेगा मेरी जानकारी वेद पुराणों में नहीं है वेद तो सिर्फ मेरा भेद/जानकारी प्रदान करता है कि वह जानकारी तत्वदर्शी संत प्रदान करेगा।
कबीर, बेद मेरा भेद है, ना बेदन के मांही। जोन बेद से मैं मिलूँ, बेद जानत नांही।।
प्रमाण:- यजुर्वद अध्याय 40 श्लोक 10 में कहा है कि परमात्मा का यथार्थ ज्ञान
(धीराणाम्) तत्वदर्शी संत बताते हैं, उनसे (श्रुणूं) सुनो।
गीता शास्त्रा चारों वेदों का संक्ष्िाप्त रूप है। इसमें भी कहा है कि परमात्मा तत्वज्ञान
यानि अपनी जानकारी तथा प्राप्ित का ज्ञान अपने मुख कमल से वाणी बोलकर बताता है।
उस ज्ञान से मोक्ष होगा। तथा सत्यलोक प्राप्ित होगी। उस ज्ञान को तत्वदर्शी संतों के पास
जाकर समझ।(गीता अध्याय 4 श्लोक 32ए 34 में)
कुरान शरीफ सूरत फुर्कानि 25 आयत नं. 52 से 59 में कहा है कि:-
जिस परमेश्वर ने छः दिन में सृष्िट रची। फिर तख्त पर जा विराजा।(जा बैठा) वह
अल्लाह कबीर है। उसकी जानकारी किसी बाखबर (तत्वदर्शी संत) से पूछो।
तत्वदर्शी संत उस पूर्ण परमात्मा की भक्ति विधि प्रदान करता है जिससे साधक जन्म मरण के रोग से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है और अपने सनातन यानी सत्य लोक अर्थात सतलोक में निवास करता है जिसकी जानकारी गीता जी के अध्याय 15 श्लोक 4 और अध्याय 18 श्लोक 62 में बताया गया है कि उस अविनाशी लोग को प्राप्त करो जो कभी नाश में नहीं आता।
संत गरीबदास जी सतगुरु की महिमा के बारे में बताते हैं कि 👇
गरीब, अमर अनाहद नाम है, निरभय अपरंपार। रहता रमता राम है, सतगुरु चरण जुहार।।43।।
सरलार्थ:- परमात्मा रमता यानि विचरण करता हुआ चलता-फिरता है। वह सतगुरू
रूप में मिलता है। उसके चरणों में प्रणाम करके भक्ित की भीख प्राप्त करें। उनके द्वारा
दिया गया नाम अनाहद (सीमा रहित) अमर (अविनाशी) मोक्ष देने वाला है। वह नाम प्राप्त
कर जो निर्भय बनाता है। उसकी महिमा का कोई वार-पार नहीं है अर्थात् वास्तविक मंत्र की
महिमा असीम है।
पूर्ण परमात्मा से परिचित करवाने और सतलोक जाने के लिए हमें तत्वदर्शी संत की शरण में जाना होगा जिसकी पहचान पवित्र गीता जी के निम्न अध्यायों के अंतर बताई गई है 👇
अध्याय 15 का श्लोक 1
ऊध्र्वमूलम्, अधःशाखम्, अश्वत्थम्, प्राहुः, अव्ययम्,
छन्दांसि, यस्य, पर्णानि, यः, तम्, वेद, सः, वेदवित्।।1।।
अनुवाद: (ऊध्र्वमूलम्) ऊपर को पूर्ण परमात्मा आदि पुरुष परमेश्वर रूपी जड़ वाला (अधःशाखम्) नीचे को तीनों गुण अर्थात् रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु व तमगुण शिव रूपी शाखा वाला (अव्ययम्) अविनाशी (अश्वत्थम्) विस्तारित पीपल का वृृक्ष है, (यस्य) जिसके (छन्दांसि) जैसे वेद में छन्द है ऐसे संसार रूपी वृृक्ष के भी विभाग छोटे-छोटे हिस्से या टहनियाँ व (पर्णानि) पत्ते (प्राहुः) कहे हैं (तम्) उस संसाररूप वृक्षको (यः) जो (वेद) इसे विस्तार से जानता है (सः) वह (वेदवित्) पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी है। (1)
भावार्थ:- गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि अर्जुन पूर्ण परमात्मा के तत्वज्ञान को जानने वाले तत्वदर्शी संतों के पास जा कर उनसे विनम्रता से पूर्ण परमात्मा का भक्ति मार्ग प्राप्त कर, मैं उस पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग नहीं जानता। इसी अध्याय 15 श्लोक 3 में भी कहा है कि इस संसार रूपी वृृक्ष के विस्तार को अर्थात् सृृष्टि रचना को मैं यहाँ विचार काल में अर्थात् इस गीता ज्ञान में नहीं बता पाऊँगा क्योंकि मुझे इस के आदि (प्रारम्भ) तथा अन्त (जहाँ तक यह फैला है अर्थात् सर्व ब्रह्मण्डों का विवरण) का ज्ञान नहीं है। तत्वदर्शी सन्त के विषय में इस अध्याय 15 श्लोक 1 में बताया है कि वह तत्वदर्शी संत कैसा होगा जो संसार रूपी वृृक्ष का पूर्ण विवरण बता देगा कि मूल तो पूर्ण परमात्मा है, तना अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म है, डार ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष है तथा शाखा तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी)है तथा पात रूप संसार अर्थात् सर्व ब्रह्मण्ड़ों का विवरण बताएगा वह तत्वदर्शी संत है।
अध्याय 15 का श्लोक 2
अधः, च, ऊध्र्वम्, प्रसृृताः, तस्य, शाखाः, गुणप्रवृृद्धाः,
विषयप्रवालाः, अधः, च, मूलानि, अनुसन्ततानि, कर्मानुबन्धीनि, मनुष्यलोके।।2।।
अनुवाद: (तस्य) उस वृक्षकी (अधः) नीचे (च) और (ऊध्र्वम्) ऊपर (गुणप्रवृद्धाः) तीनों गुणों ब्रह्मा-रजगुण, विष्णु-सतगुण, शिव-तमगुण रूपी (प्रसृता) फैली हुई (विषयप्रवालाः) विकार- काम क्रोध, मोह, लोभ अहंकार रूपी कोपल (शाखाः) डाली ब्रह्मा, विष्णु, शिव (कर्मानुबन्धीनि) जीवको कर्मोंमें बाँधने की (मूलानि) जड़ें मुख्य कारण हैं (च) तथा (मनुष्यलोके) मनुष्यलोक – स्वर्ग,-नरक लोक पृथ्वी लोक में (अधः) नीचे - नरक, चैरासी लाख जूनियों में ऊपर स्वर्ग लोक आदि में (अनुसन्ततानि) व्यवस्थित किए हुए हैं। (2)
अध्याय 15 का श्लोक 3
न, रूपम्, अस्य, इह, तथा, उपलभ्यते, न, अन्तः, न, च, आदिः, न, च,
सम्प्रतिष्ठा, अश्वत्थम्, एनम्, सुविरूढमूलम्, असङ्गशस्त्रोण, दृृढेन, छित्वा।।3।।
अनुवाद: (अस्य) इस रचना का (न) न (आदिः) शुरूवात (च) तथा (न) न (अन्तः) अन्त है (न) न (तथा) वैसा (रूपम्) स्वरूप (उपलभ्यते) पाया जाता है (च) तथा (इह) यहाँ विचार काल में अर्थात् मेरे द्वारा दिया जा रहा गीता ज्ञान में पूर्ण जानकारी मुझे भी (न) नहीं है (सम्प्रतिष्ठा) क्योंकि सर्वब्रह्मण्डों की रचना की अच्छी तरह स्थिति का मुझे भी ज्ञान नहीं है (एनम्) इस (सुविरूढमूलम्) अच्छी तरह स्थाई स्थिति वाला (अश्वत्थम्) मजबूत स्वरूपवाले (असङ्गशस्त्रोण) निर्लेप तत्वज्ञान रूपी (दृढेन्) दृढ़ शस्त्र से अर्थात् निर्मल तत्वज्ञान के द्वारा (छित्वा) काटकर अर्थात् निरंजन की भक्ति को क्षणिक जानकर। (3)
अध्याय 15 का श्लोक 4
ततः, पदम्, तत्, परिमार्गितव्यम्, यस्मिन्, गताः, न, निवर्तन्ति, भूयः,
तम्, एव्, च, आद्यम्, पुरुषम्, प्रपद्ये, यतः, प्रवृत्तिः, प्रसृता, पुराणी।।4।।
अनुवाद: {जब गीता अध्याय 4 श्लोक 34 अध्याय 15 श्लोक 1 में वर्णित तत्वदर्शी संत मिल जाए} (ततः) इसके पश्चात् (तत्) उस परमेश्वर के (पदम्) परम पद अर्थात् सतलोक को (परिमार्गितव्यम्) भलीभाँति खोजना चाहिए (यस्मिन्) जिसमें (गताः) गये हुए साधक (भूयः) फिर (न, निवर्तन्ति) लौटकर संसारमें नहीं आते (च) और (यतः) जिस परम अक्षर ब्रह्म से (पुराणी) आदि (प्रवृत्तिः) रचना-सृष्टि (प्रसृता) उत्पन्न हुई है (तम्) उस (आद्यम्) सनातन (पुरुषम्) पूर्ण परमात्मा की (एव) ही (प्रपद्ये) मैं शरण में हूँ। पूर्ण निश्चय के साथ उसी परमात्मा का भजन करना चाहिए।
पवित्र गीता जी पवित्र वेदों में तथा पवित्र कुरान शरीफ और पवित्र बाइबल में जिस सद्गुरु/तत्वदर्शी संत/बाखबर की बात कही गई है वह संत रामपाल जी महाराज जी उन्हें के पास पूर्ण परमात्मा की भक्ति विधि है जिनसे सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों जीवन सफल होंगे और सब लोग की प्राप्ति होगी जहां जाने के बाद जन्म मरण नहीं होता।
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